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यादें शेष: सलीम खान बोले- जयप्रकाश चौकसे और मुझमें पढ़ने की आदत कॉमन थी, मैं उनका सबसा करीबी दोस्त था

सलीम खान16 मिनट पहले
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बुधवार की सुबह मेरे अजीज दोस्त जयप्रकाश चौकसे के इंतकाल की खबर आई। उनके बेटों का मुझे फोन आया था। बहुत अफसोस की बात है, उनकी कोई बहुत ज्यादा उम्र भी नहीं थी। कैंसर था उनको। हालांकि वो उससे रिकवर हुए थे, पर वह शायद वापस उनको हो गया था। वो आखिर तक तो उससे फाइट कर रहे थे। संभवत: इस बार उन्होंने भी आस छोड़ दी थी। वह इंदौर के थे, वहीं की दोस्ती थी हमारी। फिल्मों से उनका ताल्लुक था तो उनका मुंबई आना जाना लगा रहता था। इंदौर में उनका डिस्ट्रीब्युशन ऑफिस भी था। वो जब मुंबई शिफ्ट हुए तो यहां उनसे मिलना जुलना ज्यादा होने लगा। उनका लिखना लगातार जारी था। मुंबई में उन्होंने मुख्तलिफ काम भी किया। फिल्म राइटिंग वगैरह में भी उन्होंने हिस्सा लिया। दैनिक भास्कर में भी वो रोज कॉलम लिखते ही थे।
पढ़ना हमारा कॉमन इंटरेस्ट था
सिनेमाई विशद ज्ञान के साथ साथ उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी कमाल का था। हम दोनों अच्छे दोस्त थे, अच्छी कंपनी थी हमारी। बहुत पुराना नाता था हमारा। मैं थोड़ा सीनियर भी था तो वो मेरी इज्जत भी करते थे। उम्र में भी और फिल्म लाइन में भी। जाहिर तौर पर उनको भी लिखने-पढ़ने का शौक था। मुझे भी था, उनकी भी रीडिंग अच्छी थी। उन्होंने काफी अच्छी अच्छी नॉवेल्स पढ़ी थी। मुझे भी रिकेमेंड की थीं। मैंने भी उन्हें काफी नॉवेल्स रिकेमंड की थीं। पढ़ना हमारा कॉमन इंटरेस्ट था। वो बहुत वेल रेड थे। माहिम में एक विक्टोरिया लाइब्रेरी थी। वहां सामने खड़े होते थे तो लाइब्रेरी संचालक हमसे कहा करते थे, ‘अब कोई नई किताब नहीं है। आप लोगों ने तो सारी किताबें यहां पढ़ ली हैं। इस किस्म के पढ़ाकू थे वो।’
मैंने उनकी मदद की
फिल्मों में भी हमारी कॉमन इंटरेस्ट था। वो फिल्म बिजनेस में भी आ ही चुके थे। उनका डिस्ट्रीब्यूशन ऑफिस भी था। उसमें एक बार प्रॉब्लम आई। वह बंद हो रहा था। नुकसान हुआ था उनको। वो मेरे पास आए, हमें बात पता चली। हमने उनसे कहा कि डोंट वरी। यह हम बंद नहीं होने देंगे, हमने हेल्प की। फिर से ऑफिस को रिवाइव किया। वह चला भी काफी अच्छी। उनका बेटा आज जो सीआई टेरेटेरी है, उसे सफलतापूर्वक लीड कर रहें हैं।
वह कुछ दिनों के लिए प्रोफेसर भी बन गए थे
तो बुधवार सुबह जब उनके देहांत के बारे में पता चला तो मुझे बड़ा धक्का लगा। उनकी दो चार दिनों से तबियत ज्यादा खराब थी। हमारी लगातार बातें हुआ करती थीं। आपसी बातचीत के लिए हमारे पास दुनिया जहान के हर तरह के टॉपिक हुआ करते थे। पॉलिटिक्स पर भी डिसकशन हुआ करता था। इंदौर में थोड़े दिन वो प्रोफेसर भी थे। कॉलेज में उनकी वाइफ भी पढ़ाती थीं। तबीयत खराब होने पर जरा बात करना कम हुआ था, मगर हमारी रोजाना बातचीत हुआ करती थी।
मुंबई प्रवास में वो रोज आते थे यहां। मोस्टली वो लंच पर मेरे साथ ही रहते थे। हां, इंदौर से वो जब भी आया करते थे तो वहां की जो मशहूर मिठाई है, वो लाया करते थे। इंदौर में बहुत अच्छी मिठाई मिलती थी। उन्होंने बतौर राइटर फिल्में लिखीं। एकाध फिल्में प्रोड्यूस भी कीं। उनके दोस्तों में मैं ही एक था, जो उनकी जरूरत में उनके साथ खड़ा रहा। उनके बेटे ने बताया कि उन्होंने अपने लास्ट आर्टिकल में भी मेरा जिक्र किया है।
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